Sunday, August 21, 2011
क्या है ये ''सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम एवं लक्षित हिंसा (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक, 2011 ''
सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम एवं लक्षित हिंसा (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक, 2011 नामक प्रस्तावित विधान का मसौदा सार्वजनिक कर दिया गया है। प्रकट रूप से विधेयक का प्रारूप देश में साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने और इस संबंध में दंड दिये जाने के प्रयास के तौर पर नजर आता है। यद्यपि स्पष्ट रूप से प्रस्तावित कानून का यह मतंव्य है, तथापि इसका अमल मतंव्य इसके विपरीत है। यह एक ऐसा विधेयक है कि यदि यह कभी पारित हो जाता है तो यह भारत के संघीय ढांचे को नष्ट कर देगा और भारत में अंतर-सामुदायिक संबंधों में असंतुलन पैदा कर देगा।
विधेयक की विषय-वस्तु : विधेयक का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है 'समूह की परिभाषा। समूह से तात्पर्य पंथिक या भाषायी अल्पसंख्यकों से है, जिसमें आज की स्थितियों के अनुरूप अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को भी शामिल किया जा सकता है। विधेयक में दूसरे चैप्टर में नये अपराधों का एक पूरा सेट दिया गया है। खंड 6 में यह स्पष्ट किया गया है कि इस विधेयक के अन्तर्गत अपराध उन अपराधों के अलावा है जो अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अधीन आते हैं। क्या किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित किया जा सकता है? खंड 7 में निर्धारित किया गया है कि किसी व्यक्ति को उन हालात में यौन संबंधी अपराध के लिए दोषी माना जायेगा यदि वह किसी 'समूहÓ से संबंध रखने वाले व्यक्ति के, जो उस समूह का सदस्य है, विरूद्ध कोई यौन अपराध करता है। खंड 8 में यह निर्धारित किया गया है कि 'घृणा संबंधी प्रचार उन हालात में अपराध माना जायेगा जब कोई व्यक्ति मौखिक तौर पर या लिखित तौर पर या स्पष्टतया अम्यावेदन करके किसी 'समूह आव किसी 'समूह से संबंध रखने वाले व्यक्ति के विरूद्ध घृणा फैलाता है। खंड 9 में साम्प्रदायिक तथा लक्षित हिंसा संबंधी अपराधों का वर्णन है। कोई भी व्यक्ति अकेले या मिलकर या किसी संगठन के कहने पर किसी 'समूह के विरूद्ध कोई गैर-कानूनी कार्य करता है तो वह उसे संगठित साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा के लिए दोषी माना जाएगा। खंड 10 में उस व्यक्ति को दंड दिए जाने का प्रावधान है, जो किसी 'समूह के खिलाफ किसी अपराध को करने अथवा उसका समर्थन करने हेतु पैसा खर्च करता है या पैसा उपलब्ध कराता है। यातना दिये जाने संबंधी अपराध का वर्णन खंड 12 में किया गया है, जिसमें कोई सरकारी कर्मचारी किसी 'समूह से संबंध रखने वाले व्यक्ति को पीड़ा पहुंचाता है या मानसिक अथवा शारीरिक चोट पहुचाता है। खंड 13 में किसी सरकारी व्यक्ति को इस विधेयक में उल्लिखित अपराधों के संबंध में अपनी ड्यूटी निभाने में ढिलाई बरतने के लिये दंडित किये जाने का प्रावधान है। खंड 14 में इन सरकारी व्यक्तियों को दंड देने का प्रावधान है जो सशस्त्र सेनाओं अथवा सुरक्षा बलों पर नियंत्रण रखते हैं और अपनी कमान के लोगों पर कारगर ढंग से अपनी ड्यूटी निभाने हेतु नियंत्रण रखने में असफल रहते हैं। खंड 15 में प्रत्यायोजित दायित्व का सिद्धांत दिया गया है। किसी संगठन का कोई वरिष्ठ व्यक्ति अथवा पदाधिकारी अपने अधीन अधीनस्थ कर्मचारियों पर नियंत्रण रखने में नाकामयाब रहता है, तो यह उस द्वारा किया गया एक अपराध माना जाऐगा। वह उस अपराध के लिए प्रत्यायोजित रूप से उत्तरदायी होगा जो कुछ अन्य लोगों द्वारा किया गया है। खंड 16 के मुताबिक वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशों को इस धारा के अंतर्गत किये गए किसी अपराध के बचाव के रूप में नहीं माना जायेगा।
साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान किए गए अपराध कानून और व्यवस्था की समस्या होती है। कानून और व्यवस्था की स्थिति से निपटना स्पष्ट रूप से राज्य सरकारों के क्षेत्राधिकारों में आता है। केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन में केन्द्र सरकार को कानून और व्यवस्था संबंधी मुद्दों से निपटने का कोई प्रत्यक्ष प्राधिकार प्राप्त नहीं है, न तो उनसे निपटने के लिए उसके पास प्रत्यक्ष शक्ति प्राप्त है और न ही वह इस विषय पर कानून बना सकती है। केन्द्र सरकार का क्षेत्राधिकार इसे सलाह, निर्देश देने और धारा 356 के तहत यह राय प्रकट करने तक सीमित करता है कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार काम कर रही है या नहीं। यदि प्रस्तावित विधेयक ही केन्द्र सरकार राज्यों के अधिकारों को हड़प लेगी और वह राज्यों के क्षेत्राधिकार में आने वाले विषयों पर कानून बना सकेगी।
भारत धीरे-धीरे और अधिक सौहार्दपूर्ण अन्तर-समुदाय संबंधों की ओर बढ़ रहा है। जब कभी भी छोटी सा साम्प्रदायिक अथवा जातीय दंगा होता हे, तो उसकी निंदा हेतु एक राष्ट्रीय विचारधारा तैयार हो जाती है। सरकारें, मीडिया, अन्य संस्थाओं सहित न्यायालय अपना-अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हो जाते हैं। नि:संदेह साम्प्रदायिक तनाव या हिंसा फैलाने वालों को दंडित किया जाना चाहिए। तथापि इस प्रारूप विधेयक में यह मान लिया गया है कि साम्प्रदायिक समस्या केवल बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा ही पैदा की जाती है और अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य कभी ऐसा नहीं करते। अत: बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के खिलाफ किए गए साम्प्रदायिक अपराध तो दंडनीय हैं। अल्पसंख्यक समूहों द्वारा बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ किए गए ऐसे अपराध कतई दंडनीय नहीं माने गए हैं। अत: इस विधेयक के तहत यौन संबंधी अपराध इस हालात में दंडनीय है यदि वह किसी अल्पसंख्यक 'समूह के किसी व्यक्ति के विरूद्ध किया गया हो।
किसी राज्य में बहुसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति को 'समूह में शामिल नहीं किया गया है। अल्पसंख्यक समुदाय विरूद्ध 'घृणा संबंधी प्रचार को अपराध माना गया है जबकि बहुसंख्यक समुदाय के मामले में ऐसा नहीं है। संगठित और लक्षित हिंसा, 'घृणा संबंधी प्रचार, ऐसे व्यक्तियों को विश्रीय सहायता, जो अपराध करते हैं, यातना देना या सरकारी कर्मचारियों द्वारा अपनी ड्यूटी में लापरवाही, ये सभी उस हालात में अपराध माने जायेंगे यदि वे अल्पसंख्यक समुदाय के किसी सदस्य के विरूद्ध किये गये हों अन्यथा नहीं। बहुसंख्यक समुदाय का कोई भी सदस्य कभी भी पीडि़त नहीं हो सकता। विधयेक का यह प्रारूप अपराधों को मनमाने ढंग से पुनर्परिभाषित करता है। अल्पसंख्यक समुदाय का कोई भी सदस्य इस कानून के तहत बहुसंख्यक समुदाय के विरूद्ध किए गए किसी अपराध के लिए दंडित नहीं किया जा सकता। केवल बहुसंख्यक समुदाय का सदस्य ही ऐसे अपराध कर सकता है और इसलिए इस कानून का विधायी मंतव्य यह है कि चूंकि केवल बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य ही ऐसे अपराध कर सकते है, अत: उन्हें ही दोषी मानकर उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। यदि इसे ऐसे स्वरूप में लागू किया जाता है, जैसा कि इस विधेयक में प्रावधान है, तो इसका भारी दुरूपयोग हो सकता है। इससे कुछ समुदायों के सदस्यों को ऐसे अपराध करने की प्रेरणा मिलेगी और इस तथ्य से वे और उत्साहित होंगे कि उनके विरूद्ध कानून के तहत कोई आरोप तो कभी लगेगा ही नहीं। आतंकी ग्रुप अब आतंकी हिंसा नहीं फैलाएंगे। उन्हें साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने में प्रोत्साहन मिलेगा क्योंकि वे यह मानकर चलेंगे कि जेहादी ग्रुप के सदस्यों को इस कानून के अन्तर्गत दंडित नहीं किया जाएगा। कानून में केवल बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों को दोषी मानने का प्रावधान है। कानून में धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव क्यों किया गया है? अपराध तो अपराध है चाहे वह किसी समुदाय के व्यक्ति ने किया हो। 21वीं शताब्दी में एक ऐसा कानून बनाया जा रहा है, जिसमें किसी अपराधी की जाति और धर्म उसको अपराध से मुक्त ठहराता है।
विधेयक में साम्प्रदायिक सौहार्द, न्याय और क्षतिपूर्ति के लिए एक सात सदस्यीय राष्ट्रीय प्राधिकरण होगा। इन 7 सदस्यों में से कम से कम चार सदस्य (जिसमें अध्यक्ष और उपाध्यक्ष भी शामिल हैं) समूह अर्थात् अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे। इसी तरह का एक प्राधिकरण राज्यों के स्तर पर भी गठित होगा। अत: इस निकाय की सदस्यता धार्मिक और जातीय आधार के अनुसार होगी। इस कानून के तहत अभियुक्त केवल बहुसंख्यक समुदाय के ही होंगे। अधिनियम का अनुपालन एक ऐसी संस्था द्वारा किया जाएगा, जिसमें निश्चित ही बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य अल्पमत में होंगे। सरकारों को इस प्राधिकरण को पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां उपलब्ध करानी होगी। इस प्राधिकरण को किसी शिकायत पर जांच करने, किसी इमारत में घुसने, छापा मारने और खोजबीन करने का अधिकार होगा और वह कार्यवाही करने, अभियोजन के लिए कार्यवाही रिकार्ड करने के साथ-साथ सरकारों से सिफारिशें करने में भी सक्षम होगा। उसके पास सशस्त्र बलों से निपटने की शक्ति होगी। वह केन्द्र और राज्य सरकारों के परामर्श जारी कर सकेगा। इस प्राधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति केन्द्रीय स्तर पर एक कोलेजियम द्वारा होगी, जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता और प्रत्येक मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टी का एक नेता शामिल होगा। राज्यों में स्तर पर भी ऐसी ही व्यवस्था होगी। अत: केन्द्र और राज्यों में इस प्राधिकरण के गठन में विपक्ष की बात को तरजीह दी जायेगी।
अपनाई जाने वाली प्रक्रियाएं : इस अधिनियम के तहत जांच के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जायेंगी वह असाधारण है। भारतीय दंड संहिता की धारा 161 के तहत कोई बयान दर्ज नहीं किया जायेगा। पीडि़त के बयान केवल धारा 164 के तहत होंगे अर्थात् अदालतों के सामने। सरकार को इस कानून के तहत संदेशों और टेली-कम्युनिकेशन को बाधित करने और रोकने का अधिकार होगा। अधिनियम के खंड 74 के तहत यदि किसी व्यक्ति के ऊपर घृणा संबंधी प्रचार का आरोप लगता है तो उसे तब तक पूर्वधारणा के अनुसार दोषी माना जायेगा जब तक वह निर्दोष सिद्ध नहीं हो जाता। साफ है कि आरोप सबूत के समान होगा। इस विधेयक के खंड 67 के तहत लोकसेवकों के खिलाफ मामला चलाने के लिए सरकार से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होगी। मुकदमें की कार्यवाही चलानेवाले विशेष सरकारी अभियोजन सत्य की सहायता के लिए नहीं, अपतिु, पीडि़त के हित में काम करेंगे। शिकायतकर्ता पीडि़त का नाम और उसकी पहचान गुप्त रखी जाएगी। मामले की प्रगती रपट पुलिस शिकायतकर्ता को बताएगी। संगठित साम्प्रदायिक और किसी समुदाय को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा इस कानून के तहत राज्य के भीतर आन्तरिक उपद्रव के रूप में देखी जायेगी। इसका यह अर्थ है कि केन्द्र सरकार ऐसी दशा में अनुच्छेद 355 का इस्तेमाल कर संबंधित राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने में सक्षम होगी।
इस विधेयक के मसौदे को जिस तरीके से तैयार किया गया है उससे साफ हे कि यह कुछ उन कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं का काम है जिन्होंने गुजरात के अनुभव से यह सीखा है कि वरिष्ठ नेताओं को किसी ऐसे अपराध के लिए कैसे घेरा जाये, जो उन्होंने किया ही नहीं। इस विधेयक के तहत जिन अपराधों की परिभाषा की गई है उन्हें जानबूझकर अस्पष्ट छोड़ दिया गया है। साम्प्रदायिक और किसी वर्ग को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा का तात्पर्य है राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को नष्ट करना है। धर्मनिरपेक्षता के मामले में कुछ उचित मतभेद हो सकते हैं। धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा जुमला है जिसका अर्थ अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग बताया जाता है। आखिर किस परिभाषा के आधार पर अपराध का निर्धारण किया जायेगा? इसी तरह सवाल यह भी है कि शत्रुतापूर्ण माहौल बनाने से कोई ठोस निर्णय लेने के लए काफी गुंजाइश है कि शत्रुतापूर्ण माहौल का आशय क्या है।
इस प्रकार के कानून के अनिवार्य परिणाम ये होंगे कि किसी भी तरह के साम्प्रदायिक संघर्ष में बहुसंख्यक समुदाय को ही दोषी के रूप में देखा जाएगा। दोष की सम्भावना तब तक बनी रहेगी जब तक अन्यथा सिद्ध नहीं हो जाता। इस कानून के तहत बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य को ही दोषी ठहराया जायेगा। अल्पसंख्यक समुदाय का कोई भी सदस्य घृणा संबंधी प्रचार या साम्प्रदायिक हिंसा का अपराध कभी नहीं कर सकता। वास्तव में इस कानून के तहत उसे निर्दोष बताने की वैधानिक उपबंध है। केन्द्र और राज्य स्तर पर निर्धारित संवैधानिक व्यवस्था को संस्थागत पूर्वाग्रह से निश्चय ही नुकसान होगा। इसकी सदस्यता संबंधी ढांचा जाति और समुदाय पर आधारित है।
मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जो कानून तैयार किया गया है उसको लागू करते ही भारत में समुदायों के बीच आपसी रिश्तों में कटुता-वैमनस्यता फैल जायेगी। यह एक ऐसा कानून है जिसके खतरनाक दुष्परिणाम होंगे। यह तय है कि इसका दुरूपयोग किया जायेगा। शायद इस कानून का ऐसा मसौदा तैयार करने के पीछे यही उद्देश्य भी है। इससे अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिलेगा। कानून में समानता और निष्पक्षता के मूल सिद्धांतो का उल्लंघन किया गया है। राष्ट्रीय परामर्शदात्री परिषद् में सामाजिक कार्यकर्ताओं से यह आशा की जा सकती है कि वे ऐसा खतरनाक और भेदभावपूर्ण कानून का मसौदा तैयार करें। यह आश्चर्य की बात है कि उस निकाय के राजनीतिक प्रमुख ने इस मसौदे को स्वीकृति कैसे प्रदान की। जब कुछ व्यक्तियों ने टाडा-आतंकवादी विरोधी कानून के खिलाफ एक अभियान को चलाया था, तो संप्रग के सदस्यों ने यह तर्क दिया था कि आतंकवादियों पर भी साधारण कानूनों के तहत मुकद्दमा चलाया जा सकता है। इससे अधिक कठोर कानून अब बनाया जा रहा है।
राज्य निराश होकर इस बात को देख रहे है कि जब केन्द्र सरकार इस प्रकार का गलत कदम उठाने जा रही है। उनकी शक्तियों को हड़पा जा रहा है। साम्प्रदायिक सौहार्द निष्पक्षता से प्राप्त किया जा सकता है न कि इसके विपरीत भेदभाव पैदा करके ऐसा किया जा सकता है।
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इस विस्तृत विवरण के लिए आपका बहुत बहुत आभार रविजी| आशा है जनता इसे समझे और इसका विरोध करे|
ReplyDeleteगहराई पूर्ण विवेचन|
dhanyvaad..mohini ji
ReplyDeleteagar janta is baat ko samjh le to bahut achaa hai, nahi to janta hi bhugtegi..